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Friday, 31 July 2020

ऑन लाइन ई पत्रिका शिक्षा वाहिनी में पढ़िए उत्तराखण्ड के बेहतरीन शिक्षक आदरणीय राजीव थपलियाल जी का रक्षा बन्धन पर लिखा ये सुन्दर व ज्ञानवर्धक लेख।

              रक्षाबंधन का पर्व          
                
           नयी -नयी सुखद अनुभूतियाँ,      कितना प्यारा-प्यारा।          
अनुपम स्नेह की झाँकी में,           बीते यह पर्व हमारा।


हमारी पुण्यतोया भारत वसुंधरा में मनाए जाने वाला एक बहुत ही महत्वपूर्ण  त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, सोने या चाँदी के धागे जैसी वस्तु की हो सकती है। रक्षाबंधन भाई बहन के रिश्ते का बहुत ही प्रसिद्ध त्योहार है, रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का आशय बाध्य है।रक्षाबंधन के दिन बहनें  अपने भाईयों की सुख,समृद्धि, खुशहाली तथा तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती हैं। 

राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु कई जगह ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) को भी रखी बाँधी जाती है।हमारे परिवारों में भी वर्षों से चली आ रही परंपरानुसार आज तक अपने कुल पुरोहित घर पर आते हैं और जनेऊ तथा राखी पहनाते हैं। रक्षाबंधन के दिन बाजार में कई सारे उपहार मिलते हैं, उपहार और नए कपड़े खरीदने के लिए बाज़ार में लोगों की सुबह से शाम तक बड़ी भीड़ लगी होती है। घर में मेहमानों का आवागमन चलता रहता है। 

रक्षाबंधन के दिन भाई अपनी बहन को राखी के बदले कुछ उपहार देते हैं। रक्षाबंधन एक ऐसा त्योहार है जो भाई बहन के प्यार को और मजबूती प्रदान करता है, इस त्योहार के दिन सभी परिवार के लोग एकजुट हो जाते हैं तथा राखी, उपहार और मिठाई देकर अपना प्यार साझा करते हैं।रक्षाबंधन भाई बहनों का वह त्योहार है जो मुख्य रूप से हिन्दुओं में प्रचलित है पर, इसे भारतवर्ष के सभी धर्मों के लोग समान उत्साह और भाव के साथ मनाते हैं। पूरे भारतवर्ष में इस दिन का माहौल बहुत ही बेहतरीन और देखने लायक होता है,और होना भी स्वाभाविक ही है क्योंकि, यही तो एक ऐसा विशेष एवं शानदार दिन है जो भाई-बहनों के लिए ही बना है।


यूं तो सर्वविदित ही है कि, भारत में भाई-बहनों के बीच प्रेम और कर्तव्य की भूमिका किसी एक दिन की मोहताज नहीं है पर रक्षाबंधन के ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व की वजह से ही यह दिन इतना महत्वपूर्ण बना है। वर्षों से यह त्यौहार आज भी बेहद जोश,उमंग और उत्साह के साथ मनाया जाता है।

हिन्दू श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) के पूर्णिमा के दिन मनाये जाने वाले इस लोकप्रिय त्योहार रक्षाबंधन के मौके पर बहनें भाइयों की दाहिनी कलाई में राखी बांधती हैं, उनका तिलक करती हैं और उनसे अपनी रक्षा का संकल्प लेती हैं। हालांकि रक्षाबंधन की व्यापकता इससे भी कहीं ज्यादा है। वर्तमान समय में राखी बांधना सिर्फ भाई-बहन के बीच तक ही सीमित नहीं रह गया है। राखी देश की रक्षा, पर्यावरण की रक्षा, हितों की रक्षा आदि के लिए भी बांधी जाने लगी है।
                                           रक्षाबंधन का इतिहास हिंदू पुराण,तथा कई कथाओं में मिलता है। वामनावतार नामक पौराणिक कथा में रक्षाबंधन का प्रसंग मिलता है। कथा इस प्रकार है कि- राजा बलि ने यज्ञ संपन्न कर स्वर्ग पर अधिकार का प्रयत्‍‌न किया, तो देवराज इंद्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। विष्णु जी वामन ब्राह्मण बनकर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गए। 

गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। वामन भगवान ने तीन पग में आकाश-पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। उसने अपनी भक्ति के बल पर विष्णु जी से हर समय अपने सामने रहने का वचन ले लिया। लक्ष्मी जी इससे चिंतित हो गई। नारद जी की सलाह पर लक्ष्मी जी बलि के पास गई और रक्षासूत्र बांधकर उसे अपना भाई बना लिया। बदले में वे विष्णु जी को अपने साथ ले आई। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।                
     
 (नोट-- इस आलेख को तैयार करने में इंटरनेट तथा अन्य संदर्भों की मदद भी ली गई है।)   
 
                                   संग्रह एवं प्रस्तुति --   राजीव थपलियाल         

सहायक अध्यापक गणित राजकीय आदर्श प्राथमिक विद्यालय सुखरौ देवी कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड

Tuesday, 21 July 2020

राष्ट्रवाद बनाम अन्तर्राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद बनाम अन्तर्राष्ट्रवाद 

मेरा राष्ट्र सबसे महान है इतिहास इसका गवाह है
पर हर राष्ट्र एक समान है भविष्य की यही राह है

इस विषय को अगर हम ऊपर से देखें तो इसमें दो ही प्रमुख पहलू नजर आएंगे एक है राष्ट्रवाद जो कि स्वदेश प्रेम से जुड़ा एक विचार है। दूसरा प्रमुख पहलू है अन्तर्राष्ट्रवाद जो की कल्पना है एक वैश्विक नागरिक की जिसमें स्वदेश प्रेम के साथ साथ विश्व के अन्य देशों के प्रति सम्मान भी हो। लेकिन इन दो प्रमुख पहलुओं के अतिरिक एक और महत्त्वपूर्ण पहलू भी है और यह तीसरा पहलू है इनके आपसी सम्बन्ध का जी हाँ चाहे वह सम्बन्ध एक दूसरे के साथ हो या एक दूसरे के विरोध में हो। मैं यहां इस मंच पर बात इन दोनों ही पहलुओं की करूँगा। चूँकि एक के बिना दूसरा तो दूसरे के बिना पहला न तो समझा जा सकता है और न ही व्यवहारिक है।

सर्वप्रथम हम इसके पहले पक्ष की बात करते हैं,

राष्ट्रवाद व अन्तर्राष्ट्रवाद इन दोनों का आपस में गहन सम्बन्ध है। राष्ट्रवाद जहाँ किसी को भी अपने देश की खातिर अपनी जान तक की बाजी लगा देने के लिए उत्सुक कर देता है तो वहीं अन्तर्राष्ट्रवाद आज के इस परमाणु बम ये दौर में विश्व शांति व सौहार्द का भाव भरता है। राष्ट्रवाद जहां हर नागरिक को अपने वतन से मोहब्बत सिखाता है तो अंतरराष्ट्रवाद पूरी दुनिया, पृथ्वी व इस मानव जाती से प्रेम की अनुभूति सिखाता है। दोनों की इस दुनिया में एक बराबर जरूरत है।

अगर इसका दुसरा पक्ष हम देखें तो यह खतरनाक ही नहीं ख़ौफ़नाक है न केवल मानव के लिए अपितु मानवता के लिए भी। इसके चलते हो सकता है कोई एक देश तो मंगल की और चल पड़े लेकिन बाकी की दुनिया जंगल की और ही जायेगी और यह तय है। अगर इन दोनों को एक दूसरे के विरोध में देखने की गलती हम करते हैं तो इससे नागरिक देशभक्त नहीं अंधभक्त पैदा होंगे। उनका विकास तो होगा लेकिन मानवता का विनाश ही होगा। इसका एक तात्कालिक उदाहरण हमारे समक्ष उत्तर कोरिया के एक सनकी तानाशाह के रूप में मौजूद है। जिसने देशभक्ति की तेज रौशनी से अपने ही देश के नागरिकों की आँखें चौन्धिया दी हैं। ऐसे में वे व्ही देख सकते हैं जो उनका मालिक कहे और व्ही सुन सकते है जिसकी इजाजत उनका मालिक दे।

अगर हम राष्ट्र के इतिहास को भी उठा कर देखें तो हम पाएंगे की राष्ट्र नागरिकों के लिए बना है, इसे नागरिको ने बनाया है और इसका लक्ष्य शांति व विकास है। ऐसे में इसके मूल लक्ष्य को हाशिये पे रख कर हम इसके निर्माण की उस भावना का ही कत्ल अगर कर दें तो यह किस हद तक जायज ठहराया जा सकता है।

अपने वतन से प्रेम , उसकी रक्षा के लिए बलिदान, उसके निर्माण के लिए आहुति, उसके मान सम्मान की परवाह करना और सबसे बढ़कर देश के लिए अपना सर्वस्व तक न्योछावर करना ये है राष्ट्रवादी की पहचान। लेकिन अन्य देशों से घृणा, उनपर जबरन आक्रमण, उनको अंदर से खोखला करने की घिनोनी साजिशें रचना, हर समय उनका अहित सोचना और अपने दुःख से दुखी न होकर उनके सुख से दुखी होना है मानवता पर कलंक होना।

मेरा देश सबसे अच्छा है यह देशभक्ति है राष्ट्रवाद है
लेकिन मेरा देश ही अच्छा है बाकी सब बुरे यह मूर्खता है

राष्ट्रवाद यानि अपने राष्ट्र से प्यार
अन्तर्राष्ट्रवाद यानि सम्पूर्ण विश्व के देशों के प्रति सम्मान

विश्व के अन्य देशों की प्रभुसत्ता उनकी अखण्डता का आदर उनकी स्वायत्ता का सम्मान, पुरे विश्व को एक परिवार मानना यही अन्तर्राष्ट्रवाद है।

आज के समय में हर देश एक दूसरे पर निर्भर है कोई भी देश अपने आप में अहम ब्रह्म अस्ति नहीं है यानि स्वयंभु नहीं है ऐसे में एक दूसरे के सांझे हितों की रक्षा करना व परस्पर सहयोग से आगे बढ़ने का नाम ही अन्तर्राष्ट्रवाद है।

वर्तमान में सभ्य नागरिक होने के दायरे विस्तृत हो चुके हैं, आज के वैश्विक परिपेक्ष्य में अपने देश से प्यार करने वाले नागरिक का तो स्थान है लेकिन अंध प्यार या बिना सोचे समझे प्यार करने वाले का स्थान नहीं।

आज अगर स्थान है तो ऐसे नागरिक का जिसमें भाव हो वसुधैव कुटुम्बकम का। वो भाव जो कि प्राण रहा है भारत की चिरकालीन पुरातन परंपरा का। अतः अंत में यही कह कर अपनी वाणी को विराम देता हूँ की...

हर राष्ट्र जुड़ा है इक दूजे से घनिष्ठ
मेरे तेरे का नहीं हमारे का भाव यहां है समाविष्ट

जय हिन्द...



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Saturday, 18 July 2020

ऑनलाइन ई पत्रिका शिक्षा वाहिनी में पढ़िये पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड के बेहतरीन शिक्षक राजीव थपलियाल द्वारा लिखित लेख पर्यावरण को पूर्णरूपेण समर्पित हरेला एक हिंदू त्यौहार जो भारत वसुंधरा के 27 वें प्रांत उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में मनाया जाता है।

हमारा हरेला पर्व का महत्व....


यह तो हम सभी लोग बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि, पर्यावरण को पूर्णरूपेण समर्पित हरेला एक हिंदू त्यौहार है जो मूल रूप से नैसर्गिक सौंदर्य के लिए विश्वविख्यात पुण्यतोया भारत वसुंधरा के 27 वें प्रांत  उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में
 मनाया जाता है। लेकिन समय की नजाकत, या यूं कहें कि सभी जगह तरह-तरह के बदलावों को देखते हुए अब यह त्यौहार समूचे उत्तराखंड में काफी लोकप्रिय हो गया है, इसकी जड़ें धीरे-धीरे बहुत मजबूत होती चली जा रही हैं और पूरे महीने भर यह त्यौहार बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाने लगा है।इसकी शुरूआत आप और हम मिलकर कर भी रहे हैं।इस दौरान अधिकांश लोग अपने घर-आंगन, बगीचों,सार्वजनिक स्थानों,विद्यालयों, सड़क के किनारे,खेतों के किनारे, आदि जगहों पर फलदार,छायादार,औषधीय तथा जानवरों के लिए घास-चारा प्रदान करने वाले वृक्षों का रोपण करके वसुधा को हरा-भरा करने का प्रयास करते हैं,ताकि पर्यावरण संतुलन बना रहे,और हम सभी वसुंधरा वासियों को जीने के लिए स्वच्छ हवा मिल सके।हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है-


1- चैत्र मास में - हरेला बीज रूप में पहले दिन बोया जाता है तथा नवमी के दिन काटा जाता है।


2- श्रावण मास में - सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है।


3- आश्विन मास में - आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है।


परन्तु हमारे खूबसूरत राज्य उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला पर्व को ही सभी लोगों  द्वारा अधिक महत्व दिया जाता है, क्योंकि श्रावण मास  भगवान आशुतोष जी को बहुत प्रिय है। यह तो सर्वविदित ही है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और  पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पहाड़ों पर ही भगवान  भोले शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है।


सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह -सुबह पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने सिर पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया तथा काटा जाता है। इसके मूल में यह मान्यता निहित है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी। साथ ही प्रभू से फसल अच्छी होने की कामना भी सभी लोगों द्वारा की जाती है।अगर सही मायने में देखा जाय तो,


हरेला सिर्फ एक त्योहार न होकर उत्तराखंड की जीवनशैली का प्रतिबिंब है। यह प्रकृति के साथ संतुलन बनाये रखने वाला बहुत ही बेहतरीन त्योहार है। इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि,प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन हमेशा से पहाड़ की परंपरा का अहम हिस्सा रहा है। हरियाली हर इंसान को खुशी प्रदान करती है। हरियाली देखकर इंसान का तन-मन प्रफुल्लित हो उठता है। इस त्योहार में व्यक्तिवादी मूल्यों की जगह समाजवादी मूल्यों को वरीयता दी गई है।सामाजिक सद्भाव और सहयोग का पर्व है हरेला।


हरेला के त्योहार में लोग अपने घर के हरेले (समृद्धि) को अपने तक ही सीमित न रखकर उसे अन्य लोगों को भी बांटते हैं। यह विशुद्ध रूप से सामाजिक सद्भभाव और प्रेम की अवधारणा है। हरेला के त्योहार में भौतिकवादी चीज़ों की जगह मानवीय गुणों को वरीयता दी गई है। मानवीय गुण हमेशा इंसान के साथ रहते हैं जबकि भौतिकवादी चीज़ें नष्ट हो जाती हैं।


वर्तमान समय में कई जगह, प्रकृति और मानव को परस्पर विरोधी के तौर पर भी देखा जाता है वहीं, हरेला का त्योहार मानव को प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की सीख देता है। हरेला पर्व हरियाली और जीवन को बचाने का संदेश देता है। हरियाली के सर्वत्र पदार्पण  से जीवन भी बचा रहेगा,और सारे वातावरण में ख़ुशी का आलम रहेगा।अतः हम दावे के साथ कह सकते हैं कि,यह पर्व प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन को खासा अहमियत देता है।


इस त्योहार का एक और शानदार पहलू यह भी है कि हरेला पारिवारिक एकजुटता का पर्व भी है। संयुक्त परिवार चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो उसमें हरेला एक ही जगह बोया जाता है। आसपड़ोस और रिश्तेदारों के साथ ही परिवार के हर सदस्य चाहे वह घर से कितना भी दूर क्यों न हो ‘हरेला’ भेजा जाता है। यह त्योहार संयुक्त परिवार की व्यवस्था पर जोर देता है। संपत्ति के बंटवारे और विभाजन के बाद ही एक घर में दो भाई अलग-अलग हरेला बो सकते हैं।
वैशाखी और होली की तरह ही यह एक कृषि प्रधान त्योहार है।
 हरेला का पर्व ऋतु परिवर्तन का सूचक भी है।


सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक महत्व के इस पर्व में हरेला को दसवें दिन काटा जाता है। वैशाखी और होली की तरह ही यह एक कृषि प्रधान त्योहार है। हरेले से नौ दिन पहले घर में स्थित पूजास्थल पर छोटी-छोटी डलिया में मिट्टी डालकर बीजों को बोया जाता है ताकि यह नौ दिन में लहलहा उठे। घर की महिलाएं या बड़े बुजुर्ग सांकेतिक रूप से इसकी गुड़ाई भी करते रहते हैं।


इसके बाद इसे काटकर विधिवत् पूजा-अर्चना कर देवताओं को चढ़ाया जाता है और फिर परिवार के सभी लोग हरेला  के पत्तों को सिर और कान पर रखते हैं। हरेला के पत्तों को सिर और कान पर रखने के दौरान घर के बड़े बुजुर्ग, आकाश के समान ऊंचा, धरती के समान विशाल और दूब के समान विस्तार करने का आशीर्वाद सभी को देते हुए कहते हैं कि---


जी रया ,जागि रया ,

यो दिन बार, भेटने रया,

दुबक जस जड़ हैजो,

पात जस पौल हैजो,
स्यालक जस त्राण हैजो,
हिमालय में ह्यू छन तक,
गंगा में पाणी छन तक,
हरेला त्यार मानते रया,
जी रया जागी रया.
हरेला घर में सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया और काटा जाता है। हरेला अच्छी फसल का सूचक है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल,फसलों को नुकसान ना हो।


यह भी मान्यता है कि, जिसका हरेला जितना बड़ा होगा उसे कृषि में उतना ही फायदा होगा। वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से स्थानीय ग्राम देवता के मंदिर में भी मनाया जाता हैं गाँव के सभी लोगों द्वारा एक साथ मिलकर मंदिर में हरेला बोया जाता है,और सभी लोगों द्वारा इस पर्व को उत्साह से मनाया जाता है।
श्रावण मास में मनाया जाने वाला हरेला बहुत ही खास है--


सावन का महीना हिन्दू धर्म में पवित्र महीनों में  से एक माना जाता है। यह महिना भगवान शिव को समर्पित है। और भगवान शिव को यह महीना अत्यधिक पसंद भी है। इसीलिए यह त्यौहार भी भगवान शिव परिवार को समर्पित है। और उत्तराखंड की भूमि को तो शिव भूमि (देवभूमि) ही कहा जाता है। क्योंकि भगवान शिव का निवास स्थान यहीं देवभूमि कैलाश (हिमालय) में ही है।इसीलिए श्रावण मास के हरेले में भगवान शिव परिवार की पूजा अर्चना की जाती है। (शिव,माता पार्वती और भगवान गणेश) की मूर्तियां शुद्ध मिट्टी से बना कर उन्हें प्राकृतिक रंग से सजाया और संवारा जाता है। जिन्हें स्थानीय भाषा में डिकारे कहा जाता है  हरेले के दिन इन मूर्तियों की पूजा- अर्चना हरेले से की जाती है। और इस पर्व को शिव पार्वती विवाह के रूप में भी मनाया जाता है।           

  (नोट-- इस आलेख को तैयार करने में इंटरनेट तथा अन्य संदर्भों की मदद भी ली गई है।)   

                                                                                                              

संग्रह एवं प्रस्तुति----                                             राजीव थपलियाल                                              सहायक अध्यापक गणित                                    राजकीय आदर्श प्राथमिक विद्यालय                          सुखरौ देवी कोटद्वार                                               पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड

Wednesday, 15 July 2020

ऑन लाइन ई पत्रिका *शिक्षा वाहिनी* में पढ़िए * छोटी काशी मण्डी हिमाचल प्रदेश* से एक बेहतरीन शिक्षिका नर्बदा ठाकुर जी की रचना देश के अन्नदाता की स्थिति को बयाँ करती ममस्पर्शी कविता *किसान*

किसान


यह तस्वीर किसान की 
पसीना बहाते उस इंसान की 
जो कर्जे में डूबे रहते हैं

ऐसे भगवान की है अन्नदाता है यह, सबका पालनहार है
पर खुद बेबस है ,लाचार हैं
लोग सोचते हैं किसान ही है
कोई भगवान नहीं है
बेबस लाचार हैं कोई बलवान नहीं है

चार दिन भूखे रह कर देखो तो मान जाओगे
किसान की कीमत पहचान जाओगे
अनाज़ नहीं होगा , तो क्या पैसा खाओगे
किसानों की कद्र करो नहीं तो पछताएओगे
रोटी के टुकड़े को तरसाओगे

तानाशाही की हद ने किसान को बेबस कर दिया
उसका घर खाली कर खुद का भर दिया
निर्दयता की हद होती है
किसानों को कमतर आॅ॑कते हो
तुम्हारी सोच कितनी छोटी है

जिसने उम्र गुजार दी धरती माॅ॑ के श्रृंगार में
आज पाई-पाई को मोहताज है वह दुनिया के बाजार में
तुम कहते हो किसान हैं खुदा नहीं
क्यों खता करते हो किसान भी उससे जुदा नहीं

किल्टे उठाने में जिसकी पीठ छलनी होती है
कमाता है दिन-रात खेतों में ,पर खुद के लिए नहीं रोटी है
अरे! क्यों भूल जाते हो उसकी भी नन्ही बेटी है
खेतों से जल्दी आना वह भी संदेशा देती है

मेहनत करके दिन रात फसलें उगाता है
इसकी कमाई का आधा हिस्सा बिचौलिया ले जाता है
देखो इसको यह और कोई नहीं दिन रात पसीना बहाता किसान है 
कर्ज में डूबे रहते है ऐसे इंसान है


रचनाकार.....
नर्बदा देवी  ठाकुर 
भाषा शिक्षिका रावमावि. कोट-तुंगल  
जिला मंडी हिमाचल प्रदेश
दूरभाष नं:-7018572001

Friday, 10 July 2020

पढ़िये देश की शिक्षा, शिक्षकों व शिक्षार्थियों को समर्पित (ऑनलाइन ई पत्रिका) शिक्षा वाहिनी में जिला सीकर राजस्थान के बेहतरीन नवाचारी शिक्षक आदरणीय अब्दुल कलीम खान जी का 'बचपन' पर लिखा ये सुन्दर लघु लेख*

बचपन

मानव जीवन के विभिन्न पड़ाव में एक बचपन ही ऐसा पडाव है जिसकी यादें मानव को बार-बार  प्रफुल्लित और पुलकित करती जाती है । बचपन वह समय होता है जिसमें किसी भी प्रकार की कोई सोचने विचारने की आवश्यकता नहीं होती सिर्फ खेलना और खाना यह दो ही कार्य होते हैं, यदि इन दोनों की पूर्ति पूर्णता नहीं होती तो फिर अपनी तुतलाती  वाणी में रोना शुरू हो जाता और फिर परिवार जन का मनाने के लिए प्रयत्न हो जाता है।


बचपन यार तेरे भी क्या दिन थे किसी प्रकार की कोई चिंता न घबराहट और सबसे इतना प्यार मिलता था ।आज जब मैं बचपन की दहलीज को पार करके प्रौढ़ावस्था में पहुंच चुका हूं लेकिन मुझे वह खेलना वह कूदना वह चिल्लाना वह भागना आज भी याद आता है । सारे सारे दिन भर ना भूख लगती थी और ना प्यास लगती थी सिर्फ यार दोस्तों की मंडली में गप्पे लडाना खेलना लगा रहता था।


बचपन तू तो बचपन ही रहा बचपन में गुजारे और मीठे लम्हात आज भी याद आते हैं तो दिल सहम जाता है। आजा रे अरे लौट के आजा अरे कहां चला गया मेरा प्यारा बचपन ।


अब तो आ रही है जल्दी ही उम्र 55 अरे मेरे बचपन आजा मीठी यादों को अपने संग ले आ|


बचपन बेचारा भी कहां आता|


है अरे नादान गया वक्त हूं कभी लौट कर ना आया हूं ना आऊंगा । अब तो सिर्फ यादों में ही रह जाऊंगा ।



अब्दुल कलीम खान
मुकाम पोस्ट दायरा वाया खंडेला जिला सीकर राजस्थान मोबाइल नंबर 

97 84 350 681


धन्यवाद जय हिन्द...

पढ़िये देश की शिक्षा, शिक्षकों व शिक्षार्थियों को समर्पित (ऑनलाइन ई पत्रिका) शिक्षा वाहिनी में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला के शिक्षक व पूर्व खण्ड स्त्रोत समन्वयक आदरणीय संजय चौधरी जी का शिक्षा विभाग द्वारा चलाई गई ऑन लाइन शिक्षण योजना 'हर घर बने पाठशाला' पर लिखा ये बेहतरीन व सारगर्भित समसामयिक लेख

'हर घर बने पाठशाला' प्रदेश सरकार की बेहतरीन पहल


हिमाचल प्रदेश शिक्षा के क्षेत्र में देश भर में अव्वल है। यहां सरकार द्वारा शिक्षा का अधिकार(आर टी ई) के उद्देश्यों को अक्षरशः लागू करने का प्रयास किया गया है जिस के परिणाम स्वरूप प्रदेश का बच्चा बच्चा स्कूल में दाखिल हुआ है। प्रदेश में  शिक्षा की इस सुंदर तस्वीर को राष्ट्रीय आंकड़े स्वयम दर्शाते हैं। विशेष आवश्यकता वाले (दिव्यांग) और  बालिका शिक्षा इस से सब से ज्यादा लाभान्वित हुए है। स्वयम यू- डाइस से प्राप्त डेटा भी ये बताता है कि गुणवत्ता शिक्षा के साथ साथ स्कूली आधारभूत ढांचे ओर सुविधाओं में भी इजाफा हुआ है। छात्र- अध्यापक अनुपात सर्वाधिक होने के साथ साथ यहां शिक्षा के प्रति जन जागरूकता भी बढ़ी है व अविभावक अपने बच्चे का शिक्षा स्तर जानने के लिए अब सरकारी स्कूलों की बैठकों व प्रशिक्षणों में जाना सुनिश्चित करने लगे हैं।

हाल ही में कोविड-19 के कहर से पूरी दुनिया सहम सी गई है व प्रगति- चक्र रुक सा गया है। आम जन मानस जान बचाने के उद्देश्य से घरों में दुबक सा गया है व एक दूसरे के मिलने जुलने से कतई परहेज किया जा रहा है। सारी दुनिया बंद या लोकडौन है। आर्थिकी बुरी तरह अस्त-व्यस्त है व् बीते 22 मार्च से प्रदेश में भी दफ्तर, दुकानें व स्कूल सब बंद कर दिए गये थे जिन्हें चरणबद्ध तरीके से खोला जा सकता है। स्कूलों को इस महामारी के फैलने हेतु सब से संवेदनशील जगह माना गया है तथा कोमल बच्चों को अध्यापकों सहित पूर्णतया स्थितियां काबू होने तक आने की मनाही की गई है।

ऐसे में प्रदेश के सरकारी स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई पीछे न छूट जाए, इस हेतु प्रदेश सरकार ने अनूठी पहल की है। महामारी के दौरान प्रदेश के दूर दराज के क्षेत्रों के  घर बैठे हुए बच्चों को भी पढ़ाई से जोडे रखा जा सके, इस हेतु प्रदेश सरकार ने शिक्षा को जारी रखने का अभियान चलाया है। इस हेतु समय और पाठ्य सामग्री तय करते हुए सरकार ने एक कदम आगे जा कर शिक्षकों हेतु भी आवश्यक मार्गदर्शिका व दिशानिर्देश तय किये गए हैं। शिक्षा के प्रति अपनी गंभीरता दिखाते हुए शिक्षा विभाग द्वारा बाकायदा "समय दस से बारह वाला,हर घर बने पाठशाला" नामक कार्यक्रम बनाया गया है जिसके अंतर्गत प्रदेश के समस्त स्कूली बच्चों के लिए सुबह 10 से 12 बजे तक ऑनलाइन वीडियो व व्हाट्सएप्प के माध्यम से पढ़ाई करवाई जाती है व साथ ही उन्हें अभ्यास कार्य भी करने को मिलता है, जिस से बच्चों को घर बैठे ही अध्ययन करवाना सुनिश्चित किया  जा रहा है। उधर विभाग ने इस हेतु राज्य शिक्षा निदेशालय की ओर से वेबसाइट भी लांच कर दी है जिस के अंतर्गत कक्षा एक से ले कर बाहरवीं तक के बच्चे के आधारभूत पाठ्य विषय हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान, संस्कृत आदि का अध्यापन सुनिश्चित किया गया है। ऑनलाइन पढ़ाई होने से एक तो बच्चों की पढ़ाई में भी बाधा नही पड़ेगी, दूसरा बच्चे घर में रह कर इस कोविड-19 जैसी जानलेवा बीमारी से भी बचे रहेंगे। सरकार द्वारा इस हेतु व्यापक योजना भी बनाई गई है जिसके अंतर्गत विभाग के माध्यम से रोज सुबह 9 बजे तक प्रत्येक कक्षा की पाठ्यसामग्री ओर अभ्यास कार्य स्कूल मुखियाओं के पास पहुंच जाता है व इसे वे शिक्षकों के माध्यम से प्रत्येक बच्चे के अविभावकों तक व्हाट्सएप्प के माध्यम से समय पर पहुंचना सुनिश्चित करते हैं।

ये सामग्री इतनी सरल तरीके से स्वयम निर्देशित होती है कि कोई भी अविभावक या बच्चा दिए गए लिंक पर क्लिक कर के अपनी कक्षा के प्रत्येक विषय का पठन व वीडियो देख - सुन सकता है व तत्पश्चात अपना अभ्यास कार्य कर सकता है। पढ़ने के पश्चात यदि  फिर भी विषयवस्तु बच्चे की समझ मे नही आ रही है तो इस हेतु पुनः अध्यापकों से फोन के माध्यम से सम्पर्क किया जा सकता है। दिए गए गृहकार्य, जो कि अत्यंत सरल व थोड़ा सा ही होता है, को शाम तक अध्यापकों के पास चेक करवाने हेतु भेजना होता है जिसे अध्यापक चेक करके त्रुटियों से व्हाट्सएप्प के माध्यम से ही बच्चों को अवगत करवा कर निर्देशित करते हैं।

सरकार द्वारा "हर घर बने पाठशाला" को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए अविभावकों, शिक्षकों और विभाग के उच्चाधिकारियों की भूमिका तय करते हुए उन्हें दिशानिर्देशित किया गया है। इस अनूठी पहल में सब से पहले आग्रह अविभावकों से किया गया है कि उन्हें अपने बच्चे को उस के स्कूल के अध्यापक द्वारा बनाये गए व्हाट्सएप्प ग्रुप से जोड़ना होगा। तत्पश्चात सुबह 10 बजे से 12 बजे तक बच्चे को मोबाइल के माध्यम से पाठ्य सामग्री दिखाना ओर करवाना उनके माध्यम से सुनिश्चित किया गया है। दूसरे स्तर पर शिक्षकों को अपनी कक्षा के सभी अविभावकों को व्हाट्सएप्प ग्रुप में जोड़ना होगा और समय पर पाठ्यसामग्री भेजनी होगी। उन्हें बच्चों के गृहकार्य को चेक करना और खास उनके लिए बनाए गए "ऑनलाइन मोनिटरिंग फॉर्म" को शाम तक भर कर वापिस उच्चाधिकारियों को भेजना होगा। इस फॉर्म में उनके द्वारा विषयानुसार पाठ्य विषय वस्तु का आकलन किया जाएगा और इस से सम्बंधित "टीचर एप्प" पर भी निर्धारित साप्ताहिक कोर्स पूर्ण करने होंगे। उच्चाधिकारियों को भी इन्ही चरणों से क्रमशः गुजरना होगा व अधीनस्थ कर्मचारियों को समय पर सुविधा प्रदान करवाना होगा।

शिक्षा के क्षेत्र में सरकार द्वारा की गई ये पहल इस लिए भी अनूठी है कि इस से पूर्व प्रारम्भिक व उच्च शिक्षा विभाग में इस तरह की  ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करने की विधा पर कभी विचार नही हुआ। सरकारी प्रयासों से प्रथम बार शिक्षक, अविभावक ओर विभाग एक लक्ष्य के साथ जुड़ा है। विभागीय आंकड़ों के अनुसार कक्षा एक से बारह तक के लगभग 70 फीसदी बच्चे व्हाट्सएप्प के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा से जुड़े हैं जो कि हिमाचल जैसे दुर्गम पहाड़ी राज्य के लिए गर्व का विषय है। शिक्षक सीधे रूप से अविभावकों से जुड़े हैं व अविभावकों को भी अब पता चल गया है कि अध्ययन-अध्यापन कितना मुश्किल कार्य है और उनका बच्चा किन परिस्थितियों में अध्ययन करता है। अध्यापकों ओर अविभावकों के परस्पर सहयोग से ही ये ऑनलाइन शिक्षा बच्चों को मिलनी तय हो पा रही है। अविभावक  ये जान गए हैं कि किस तरह सरकारी शिक्षक एवम व्यस्था उनके बच्चे के लिये इस जानलेवा महामारी के कठिन दौर में भी उसके बच्चे की बेहतरी के लिये काम कर रहे हैं। कुल मिला कर अध्यापकों ओर अविभावकों में परस्पर सहयोग, निष्ठा, पारदर्शिता और एक दूसरे पर विस्वास बढा है।

उधर बच्चे भी इस दौरान ऑनलाइन शिक्षा हेतु स्वयम तैयार हो रहे हैं। नित्यप्रति अपना ग्रह कार्य अपने माता -पिता के मोबाइल में देखना, उसे समझना, करना व उस के बाद अभ्यास कार्य को अपने अध्यापकों के पास ऑनलाइन भेजना अपनी जिम्मेदारी समझने लगे हैं। इस तरह से सरकारी स्कूलों के बच्चे एक तो जिम्मेदार बन रहे, दूसरे वे तकनीकी तौर पर भी अपने आप को सक्षम कर रहे। अब वे अपना समय मोबाइल पर गेम्स खेलने या कार्टून देखने पर बिताने की बजाए पाठ्य सामग्री के अध्ययन पर लगा रहे। इस से अविभावक भी खुश हैं और शिक्षकों  के लिये भी विषय वस्तु का अध्यापन कुछ हद तक सरल हुआ है।
विभागीय स्तर पर भी जिम्मेदारी ओर मार्गदर्शन से विभागीय तालमेल बढा है। घर बैठे अध्यापन कार्य करने से एक ओर जहाँ कुछ हद तक स्वच्छंदता मिली है वहीं नित्यप्रति विभागीय मॉनिटरिंग शिक्षण कार्य में गुणवत्ता, सुनिश्चिता ओर सहभागिता पर भी जोर दिया जा रहा है। अतः विभागीय जबाबदेही भी सुनिश्चित हुई है।

   अतः संक्षेप में कहा जाए तो ऑनलाइन शिक्षा आज के विपत्ति के इस दौर में एक बेहतरीन विकल्प है, जिसे प्रत्येक स्तर पर बाखूबी निभाया जा रहा है। यधपि ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करना अपने आप मे सम्पूर्ण नही  है क्योंकि जो शिक्षा एक बालक को स्कूली कक्षा के माध्यम से दी जा सकती है वह दुनिया के किसी  अन्य माध्यम से प्रदान करने से नही दी जा सकती। ऑनलाइन माध्यम से मात्र विषयवस्तु का आदान प्रदान किया जा सकता है, परन्तु  बच्चे का सम्पूर्ण शिक्षित और विकसित होना इस के द्वारा संभव नही। साथ ही व्हाट्सअप का माध्यम सिर्फ सूचना प्रदान करना हो सकता है, सम्पूर्ण ऑनलाइन व्यस्था व्हाट्सएप्प ही नही है। हमे प्रदेश में अधिकतर इंटरनेट की असुविधा ओर सिग्नल की परेशानी के चलते ऑनलाइन शिक्षा की अन्य  संभावनाओं जेसे  दूरदर्शन, रेडियो, फोन-इन आदि पर भी विचार करना होगा। साथ ही ऑनलाइन शिक्षा से उपजे बच्चों के स्वास्थ्य ओर मनोभावों के बदलाब सम्बन्धी दुष्प्रभावों को भी समय रहते भांप कर उनके निदान हेतु उपाय करने होंगे। माता पिता की आय और सामर्थ्य को भी ध्यान में रखना होगा क्योंकि हर माता पिता एंड्रॉयड या स्मार्ट फोन नही रख सकते या नेट खरीदना उनके लइये मुश्किल होगा। साथ ही ये बच्चे के मुफ्त शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारों से भी विपरीत होगा। अतः सरकार को भी बच्चों हेतु चलाई जा रही अन्य योजनाओं या छात्रवृतियों से आगे सोच कर ऑनलाइन शिक्षा पर व्यय बढाना होगा ताकि सही मायने में प्रदेश शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक रूप के आगे बढ़े।


(द्वारा, संजय कुमार, गाँव बनोरडू (योल केम्प), तहसील धर्मशाला जिला कांगड़ा, हि0प्र0-176052)
(लेखक धर्मशाला से हैं और एक अध्यापक है)
फोन नम्बर- 9418494041






धन्यवाद जय हिन्द...

Sunday, 5 July 2020

पढ़िये देश की शिक्षा, शिक्षकों व शिक्षार्थियों को समर्पित (ऑनलाइन ई पत्रिका) शिक्षा वाहिनी में हिमाचल प्रदेश के सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार आदरणीय अमर सिंह शौल जी की बच्चों को बेहतरीन संदेश देती बाल कहानी 'बेल सूख गई'


बेल सूख गई

मई का महीना था| गर्मी पुरे जोर से पड़ रही थी| बंटी के घर के पिछवाड़े में करेले की एक बेल उगी थी| करेले की बेल अपने आप ही पैदा हुई थी| उसे बोया नहीं गया था| बंटी ने देखा की करेले की बेल बड़ी हो गई थी| वह उसे क्यारी में लगाना चाहता था|

‘अम्मा देखो! करेले की बेल कितनी बड़ी हो गई है |’ बंटी ने करेले की बेल को अपनी अम्मा को दिखाते हुए कहा|

‘हाँ बंटी! कितनी बड़ी हो गई है| मैंने तो इसे देखा भी नहीं था |’ बंटी की अम्मा बोली| ‘अम्मा, मैं इसे क्यारी में लगा दूँ? बंटी ने पूछा| ‘नहीं बंटी | अभी धूप है| इसे शाम के समय अच्छी तरह जड़ से उखाड़ कर लगाना|’

‘अभी क्यों नहीं ?’ बंटी ने प्रश्न किया| ‘बंटी, एक बार कह दिया न, इसे शाम के समय अच्छी तरह जड़ से उखाड़ कर लगाना |’ ‘इसे धूप छांव से क्या फर्क पड़ता है| मैं इसे अभी लगा दूंगा|’ ‘अच्छा, तू जो मर्जी कर | समझाने से तू समझता नहीं |’ उसकी अम्मा जरा चिढ़ते हुए बोली|

बंटी ने अपनी अम्मा की बात नहीं मानी| उसने करेले की बेल को धूप में उखाड़ कर लगा दिया| करेले की बेल को पानी भी दे दिया | उसने देखा कि दो तीन दिन बाद करेले की बेल सूख गई तो उसने अपनी अम्मा से पूछा-‘अम्मा, करेले की बेल एकदम सूख गई है | मैं इसे रोज सुबह शाम पानी भी देता रहा फिर भी यह कैसे सूख गई | यह बात मेरी समझ में नहीं आई |’

‘बेटा, मैंने तुम्हें पहले ही समझाया था कि क्र=करेले की बेल को धूप में मत उखाड़ो | धुप की वजह से बेल मुरझा गयी क्योंकि जहाँ से तुमने बेल को उखाड़ा था, वहाँ उसने जड़ें पकड़ रखी थीं | अगर तुम इसे शाम के समय उखाड़ते तो इसके ऊपर धुप का इतना असर नहीं पड़ता| रात के समय मौसम ठंडा रहता है| शाम को पानी देने से उसमें नमी आ जाती और करेले की बेल हरी भरी हो जाती |’

‘अम्मा मुझे माफ़ कर दो |’

‘बंटी आगे से ध्यान रखना | बड़ो की बात भी माननी चाहिए |’

‘जी, अम्मा जी |’
बात बंटी को समझ आ चुकी थी |


_अमर सिंह शौल,
गाँव व डाकघर-समैला, तहसील
बलदबाड़ा, जिला मंडी हिमाचल प्रदेश,
पिन – 175034