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Sunday, 29 August 2021

हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद (राष्ट्रीय खेल दिवस 29 अगस्त पर विशेष) लेख उत्तराखण्ड के शिक्षक राजीव थपलियाल जी का

हॉकी के जदूगर मेजर ध्यानचंद (राष्ट्रीय खेल दिवस 29 अगस्त पर विशेष) यह तो हम सभी लोग भली-भांति जानते ही हैं कि, विश्व के महानतम खिलाड़ियों में से यदि एक ऐसे व्यक्ति का नाम पूछा जाए, जिसने हॉकी के खेल में अपने करिश्माई प्रदर्शन से पूरी दुनिया को अचम्भित कर खेलों के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा लिया हो, तो अधिकतर लोगों का जवाब होगा भारत वसुंधरा का लाल मेजर ध्यानचन्द। हॉकी के मैदान पर, जब वे अपने बेहतरीन अंदाज में स्टिक पकड़कर खेलने उतरते थे, तब एक ऐसा मायावी इन्द्रजाल बुन देते थे कि, विपक्षी टीम की हार सुनिश्चित लगने लगती थी । उनके बारे में यह कहा जाता है कि, वे किसी भी कोण से गोल कर सकते थे। यही कारण है कि सेण्टर फॉरवर्ड के रूप में उनकी तेजी और जबरदस्त फुर्ती को देखते हुए उनके जीवनकाल में ही उन्हें हॉकी का जादूगर कहा जाने लगा था।हॉकी के ऐसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी ध्यानचन्द का जन्म 29 अगस्त, 1905 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (अब-प्रयागराज) mnशहर में हुआ था।उनके पिता सोमेश्वर दत्त सिंह मूल रूप से पंजाब के निवासी थे और उस समय ब्रिटिश इण्डियन आर्मी में सुबेदार के पद पर इलाहाबाद में तैनात थे।कुछ दिनों बाद उनका स्थानान्तरण झाँसी में हो गया, इसलिए ध्यानचन्द भी अपने पिता के साथ वहीं रहने चले आए।इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी झाँसी में ही हुई थी।अपने पिता के स्थानान्तरणों से पढ़ाई के बाधित होने और हॉकी के प्रति अपनी दीवानगी के कारण वे केवल छठी कक्षा तक ही पढ़ाई कर सके। उनके बचपन का नाम ध्यानसिंह था।वे बचपन में अपने मित्रों के साथ पेड़ की डाली से स्टिक और बेकार पड़े कपड़ों की गेंद बनाकर हॉकी खेला करते थे । एक बार की बात है, वे अपने पिता के साथ एक हॉकी मैच देख रहे थे । इसमें एक पक्ष के खिलाफ विरोधी पक्ष ने लगातार कई गोल किए।कमजोर पक्ष की स्थिति देखकर ध्यानचन्द ने अपने पिता से कहा कि यदि वे इस पक्ष की तरफ से खेले, तो परिणाम कुछ और ही होगा।वहीं पास में खड़ा आर्मी का एक ऑफिसर उनकी बात को सुन रहा था।उसने ध्यानचन्द को कमजोर पक्ष की ओर से खेलने दिया और थोड़ी ही देर में विरोधी टीम के खिलाफ लगातार चार गोल कर उन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दे दिया। उस समय उनकी आयु मात्र 14 वर्ष थी।उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कुछ समय बाद आर्मी के उस ऑफिसर ने उन्हें मात्र 16 वर्ष की आयु में इण्डियन आर्मी में भर्ती कर लिया। इसके बाद हॉकी से उनका साथ किसी-न-किसी रूप में जीवनपर्यन्त रहा।आर्मी में शामिल होने के बाद उनके ब्राह्मण रेजीमेण्ट के कोच भोले तिवारी इनके पहले कोच बने।ऐसा कहा जाता है कि, आर्मी में सिपाही के तौर पर कार्य करने के कारण उनके पास हॉकी खेलने के लिए वक्त नहीं होता था, इसलिए रात को जब उनके सभी साथी बैरक में सो जाते थे, तब ध्यानचन्द चाँद की रोशनी में हॉकी की प्रैक्टिस किया करते थे। इससे हॉकी के प्रति उनकी दीवानगी का पता चलता है। आर्मी में शामिल होने के साथ ही उनके हॉकी खिलाड़ी के रूप में कैरियर की शुरूआत तब हुई, जब 21 वर्ष की आयु में वर्ष 1926 में उन्हें न्यूजीलैण्ड जाने वाली भारतीय टीम में चुन लिया गया। इस दौरे में भारतीय सेना की टीम ने 21 में से 18 मैच जीते थे।23 वर्ष की उम्र में ध्यानचन्द वर्ष 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक में पहली बार भाग ले रही भारतीय हॉकी टीम के सदस्य के रूप में चुने गए। यहाँ चार मैचों में भारतीय टीम ने 23 गोल किए और अन्त में स्वर्ण पदक जीतने में कामयाब रही।वर्ष 1932 में लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में भारत ने अमेरिका को 24-1 के रिकॉर्ड अन्तर से हराया। इस मैच में ध्यानचन्द एवं उनके बड़े भाई रूपसिंह ने आठ-आठ गोल किए थे। इस ओलम्पिक में भी भारतीय टीम को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था।वर्ष 1936 के बर्लिन ओलम्पिक में ध्यानचन्द भारतीय हॉकी ओलम्पिक टीम के कप्तान थे।इस दौरान 15 अगस्त,1936 को हुए फाइनल मैच में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराकर स्वर्ण पदक पर कब्जा किया, यह अपने आप में काबिले तारीफ था क्योंकि, इस मैच को जर्मनी का तत्कालीन तानाशाह हिटलर भी देख रहा था। कहा जाता है कि मैच समाप्त होने के बाद स्वयं हिटलर ने ध्यानचन्द से मुलाकात कर उनके खेल की बहुत तारीफ की थी। इतना ही नहीं, विश्व के महान् क्रिकेटर सर् डॉन ब्रैडमैन को भी ध्यानचन्द ने अपना कायल बना दिया था।वर्ष 1932 में भारतीय हॉकी टीम ने पूरे साल में कुल 37 मैच खेलकर 338 गोल बनाए थे और इनमें से 133 गोल ध्यानचन्द ने किए थे।उनके भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहते हुए टीम ने विभिन्न ओलम्पिक खेलों में कुल 28 गोल किए थे, इनमें से 11 गोल ध्यानचन्द के नाम दर्ज हैं। ओलम्पिक और उसके क्वालीफाई मैचों में 101 गोल करने और अन्य इण्टरनेशनल मैचों में 300 गोल करने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के खाते में है। उनके करिश्माई खेल का ही नतीजा था कि, हॉलैण्ड में एक मैच के दौरान उनकी स्टिक को तोड़कर देखा गया कि,कहीं उसमें चुम्बक तो नहीं लगा है। जापान में उनकी हॉकी स्टिक का यह सच जानने के लिए परीक्षण किया गया था कि, कहीं उसमें गोंद का प्रयोग तो नहीं हुआ है। उनके प्रदर्शन के दम पर ही भारतीय हॉकी टीम ने तीन बार वर्ष 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक, वर्ष 1932 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक एवं वर्ष 1936 के बर्लिन ओलम्पिक में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। यह हमारे सभी देशवासियों के लिए बड़े गर्व की बात है।यह भारतीय हॉकी को ध्यानचंद का सबसे बड़ा योगदान है। ध्यानचन्द ने अपना अन्तिम मैच वर्ष 1948 में खेला था तथा उसी वर्ष उन्होंने अपने स्वर्णिम खेल जीवन से संन्यास लेने की घोषणा कर दी।उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय मैचों में,400 से अधिक गोल किए,जो कि अपने आप में एक कीर्तिमान है। ध्यानचन्द को वर्ष 1938 में ‘वायसराय का कमीशन’ मिला और वे जमादार बने।इसके बाद वे पदोन्नति पाते हुए क्रमशः सुबेदार, लेफ्टिनेण्ट और कैप्टन बनते चले, अन्ततः उन्हें मेजर बना दिया गया।उनकी उपलब्धियों को देखते हुए उन्हें विभिन्न पुरस्कारों एवं सम्मानों से विभूषित किया गया। वर्ष 1956 में 51 वर्ष की उम्र में जब वे भारतीय सेना के मेजर पद से सेवानिवृत्त हुए, तो उसी वर्ष भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया।उनके जन्मदिन 29 अगस्त को ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा भी हुई। खेलों से सम्बन्धित अर्जुन पुरस्कार, राजीव गाँधी खेल रत्न अवार्ड और गुरु द्रोणाचार्य अवार्ड हर वर्ष इसी दिन प्रदान किए जाते हैं।उनको सम्मानित करने के लिए वियना के एक स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है, जिसमें उनको चार हाथों में चार स्टिक पकड़े हुए दिखाया गया है। नई दिल्ली में एक स्टेडियम का नाम उनके नाम पर मेजर ध्यानचन्द स्टेडियम रखा गया है एवं भारतीय ओलम्पिक संघ ने उन्हें शताब्दी का खिलाड़ी घोषित किया है। वर्ष 1979 में जब ध्यानचन्द बीमार हुए, तो उन्हें दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती करवाया गया।वहां के डॉक्टरों की टीम द्वारा उन्हें बचाने के सारे प्रयास विफल रहे और 3 दिसम्बर,1979 को उनका देहान्त हो गया।झाँसी में उनका अन्तिम संस्कार किसी घाट पर न कर, उस मैदान पर किया गया, जहाँ वे अक्सर हॉकी खेला करते थे, इस तरह से हॉकी के इस महान जादूगर का पार्थिव शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया।अपने जीवनकाल में अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हासिल करने के बाद भी इस महान् व्यक्तित्व ने अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखा है कि, ”आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूँ ।” अतः यहाँ पर यह कहना समीचीन होगा कि,केवल हॉकी ही नहीं खेलों के इतिहास में भी मेजर ध्यानचन्द का नाम हमेशा- हमेशा के लिए अमर रहेगा। (नोट- इस आलेख को तैयार करने में इंटरनेट तथा अन्य संदर्भों की मदद भी ली गई है।) संग्रह एवं प्रस्तुति -- राजीव थपलियाल (प्रधानाध्यापक) राजकीय प्राथमिक विद्यालय मेरुड़ा संकुल केंद्र- मठाली विकासखंड -जयहरीखाल जनपद -पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड।

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